भगवद गीता - अध्याय २ - पद ६, ७ और ८ | अर्था । आध्यात्मिक विचार | भगवद गीता का ज्ञान

  • 5 years ago
इस वीडियो में देखिये की अर्जुन भगवान कृष्ण को दोनों सेनाओं की स्थिति तथा इस युद्ध से किसी को भी कुछ लाभ नहीं है यह बताने का प्रयास कर रहा है

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१ छठे श्लोक में अर्जुन कहते हैं;

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।

यानेव हत्वा न जिजीविषाम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ।।६।।



२ इस श्लोक का अर्थ है:

हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना श्रेष्ठ है या युद्ध न करना, और यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या वे ही जीतेंगे, धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करके हम जीना भी नहीं चाहते, फ़िर भी वे हमारे सामने युद्ध-भूमि में खड़े हैं

३ सातवां श्लोक इस प्रकार है:

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम ।।७।।



४ यहां अर्जुन ने अपनी उलझन को बताया है और उसके लिए स्पष्टीकरण की विनंती करता है। वह कहता है;

कृपण और दुर्बल स्वभाव के कारण अपने कर्तव्य के विषय में मोहित हुआ, मैं आपसे पूछता हूँ कि वह साधन जो मेरे लिये श्रेयस्कर हो, उसे निश्चित करके कहिए, अब मैं आपका शिष्य हूँ, और आपके शरणागत हूँ, कृपया मुझे उपदेश दीजिये

५ आठवें श्लोक में अर्जुन कहता है:

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम ।

अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम ।।८।।

६ इस श्लोक का भावार्थ है

मुझे ऐसा कोई साधन नही दिखता जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके, स्वर्ग में धनधान्य-सम्पन्न देवताओं के सर्वोच्च इन्द्र-पद और पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य को प्राप्त करके भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ

७ भगवद गीता के अगले वीडियो में देखिए की संजय धृतराष्ट्र से अर्जुन की स्थिति के बारे में क्या कहता है



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