दोहा: माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर | आशा तृष्णा न मरी , कह गये दास कबीर ||
प्रसंग: "आशा तृष्णा न मरी" शरीर मर गया पर ऐसा क्यों बता रहे हैं कबीर ? प्रति पल मरने का क्या आशय है? सत्संग का क्या अर्थ है? मुक्ति के खिलाफ खुद ही क्यों खड़े हो जाते है?