जब हनुमान ने एक घर को छोड़कर लगा दी पूरी लंका में आग
मैं हनुमान। केसरी और अंजनी का पुत्र। पवनपुत्र और रुद्रावतार। बाली ने जब सुग्रीव को किष्किंधा से निकाला था, तो उनके साथ मैं भी ऋष्यमुक पर्वत पर आ गया था। महाराज सुग्रीव का मुझ पर अत्यधिक अनुग्रह और स्नेह है। मेरी मंत्रणा के बिना कोई काम नहीं होता। ऋष्यमुक पर्वत ही ऐसी जगह है जहां बाली नहीं आ सकता। ऋषियों का श्राप है। अगर आया तो भस्म हो जाएगा। इस कारण महाराज सुग्रीव और उनके सारे मंत्री यहीं रहते हैं। लेकिन, आज कोई दो मानव धनुष-बाण लिए ऋष्यमुक पर्वत की तलहटी में घूम रहे हैं। महाराज सुग्रीव चिंतित हैं, कहीं ये दो मानव बाली के भेजे तो नहीं आए हैं।
ब्राह्मण का रुप धरकर उनका रहस्य जानने के लिए पर्वत से नीचे आया। जब बातें कीं, तो मैं अधीर हो उठा। ये तो मेरे आराध्य श्रीराम हैं। तपस्विनी शबरी के कहने पर वे महाराज सुग्रीव से मित्रता करने आए हैं। मैं गदगद था। भगवान स्वयं भक्त के पास आए हैं। उन्हें कांधे पर बैठाकर तुरंत महाराज सुग्रीव के पास ले गया। उनकी मित्रता कराई। अग्नि को साक्षी मानकर दोनों ने एक-दूसरे की सहायता की शपथ ली। भगवान ने महाराज सुग्रीव को उनका राज दिलवाने और महाराज सुग्रीव ने माता सीता का पता लगाने की शपथ ली। प्रभु ने अपना वचन पूरा भी तत्काल किया। ये तो राम के दर्शन का प्रताप है कि भगवान सुग्रीव के सामने आए और उनके राज्य का अधिकार उन्हें मिला। भगवान राम ने सहज ही बाली का वध कर महाराज सुग्रीव को उनका राज्य दिला दिया।
वर्षा ऋतु बीती और वानरों के दल चारों दिशाओं में भेजे गए। सबसे बड़ा और शक्तिशाली दल दक्षिण दिशा की ओर भेजा गया। युवराज अंगद के नेतृत्व में अनुभवी जामवंत, नील, नल सहित कई वानरों के साथ मैं भी दक्षिण दिशा में चल पड़ा। भगवान ने अपनी एक मुद्रिका मुझे दी। हम वायु की गति से चल पड़े। कई पर्वत और नदियों को पार करते हुए हम सागर तक आ गए। इसके आगे कोई मार्ग नहीं था। सीता माता कहां हैं, ये भी कोई नहीं जानता था। तभी किसी के जोरों से हंसने की आवाज आई। ये संपाति था, गिद्ध राज जटायु का बड़ा भाई। वो हमें खाना चाहता था लेकिन हमने उसे पूरी कहानी सुनाई। उसने कहा मैं सीता तक तो नहीं जा सकता क्योंकि मेरे पंख जल चुके हैं लेकिन मैं अपनी दृष्टि से देखकर ये बता सकता हूं कि सीता समुद्र के पार लंका में ही है।
अब ये विचार शुरू हुआ कि समुद्र पार जाएगा कौन? अंगद जाने को तैयार हुए लेकिन जामवंत ने उन्हें रोक दिया। जामवंत ने फिर मुझे अपने जन्म और शक्तियों के बारे में बताया। मेरे भीतर एक ऊर्जा भर दी। मैं भगवान की दी हुई मुद्रिका मुख में रखकर लंका की ओर उड़ चला। रास्ते में कई परेशानियां आईं, सुरसा और सिंहिका जैसी राक्षसियों ने रोकने का प्रयास किया लेकिन सबको शांत करते हुए लंका तक पहुंच ही गया। सीता को खोजते हुए मेरी भेंट रामभक्त विभीषण से हुई। रावण का सहोदर लेकिन स्वभाव में उससे पूर्ण विपरीत। विभीषण ने अशोक वाटिका के बारे में बताया। वहां पहुंचकर देखा तो रावण अपने दल-बल के प्रभाव दिखा कर डरा रहा था। उसके जाते ही मैंने माता सीता के सम्मुख राम मुद्रिका डाल दी। माता आश्चर्यचकित थीं। मैंने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाया।
रावण को संकेत देने के लिए उसकी अशोक वाटिका भी उजाड़ दी और उसके पुत्र अक्षकुमार को भी मार दिया। इंद्रजीत ने नागपाश में मुझे बांधकर लंकापति के सामने प्रस्तुत किया। लंकापति रावण को मैंने समझाने का प्रयास किया लेकिन उसने क्रोधित होकर मेरी हत्या के आदेश सेवकों को दे दिए। विभीषण ने उन्हें रोका। दूत को मारना न्यायसंगत नहीं है। रावण ने कहा इसकी पूंछ में आग लगा दो। रक्षकों ने नगर में ले जाकर मेरी पूंछ पर कपड़ा लपेटकर जला दिया। मैं उछलकर एक भवन पर चढ़ा और एक के बाद एक सारे भवन जला दिए। सिर्फ विभीषण का घर छोड़ दिया। राम भक्त के घर तो अग्नि हवन और यज्ञ के रुप में ही पहुंच सकती है। और किसी रुप में नहीं। पूंछ की आग बुझाकर माता सीता से एक निशानी लेकर मैं फिर प्रभु राम की ओर चल पड़ा। मन में विभीषण के लिए कृतज्ञता थी, प्रेम था। शत्रु के घर में प्राणों की रक्षा करने वाला मित्र था विभीषण।
ब्राह्मण का रुप धरकर उनका रहस्य जानने के लिए पर्वत से नीचे आया। जब बातें कीं, तो मैं अधीर हो उठा। ये तो मेरे आराध्य श्रीराम हैं। तपस्विनी शबरी के कहने पर वे महाराज सुग्रीव से मित्रता करने आए हैं। मैं गदगद था। भगवान स्वयं भक्त के पास आए हैं। उन्हें कांधे पर बैठाकर तुरंत महाराज सुग्रीव के पास ले गया। उनकी मित्रता कराई। अग्नि को साक्षी मानकर दोनों ने एक-दूसरे की सहायता की शपथ ली। भगवान ने महाराज सुग्रीव को उनका राज दिलवाने और महाराज सुग्रीव ने माता सीता का पता लगाने की शपथ ली। प्रभु ने अपना वचन पूरा भी तत्काल किया। ये तो राम के दर्शन का प्रताप है कि भगवान सुग्रीव के सामने आए और उनके राज्य का अधिकार उन्हें मिला। भगवान राम ने सहज ही बाली का वध कर महाराज सुग्रीव को उनका राज्य दिला दिया।
वर्षा ऋतु बीती और वानरों के दल चारों दिशाओं में भेजे गए। सबसे बड़ा और शक्तिशाली दल दक्षिण दिशा की ओर भेजा गया। युवराज अंगद के नेतृत्व में अनुभवी जामवंत, नील, नल सहित कई वानरों के साथ मैं भी दक्षिण दिशा में चल पड़ा। भगवान ने अपनी एक मुद्रिका मुझे दी। हम वायु की गति से चल पड़े। कई पर्वत और नदियों को पार करते हुए हम सागर तक आ गए। इसके आगे कोई मार्ग नहीं था। सीता माता कहां हैं, ये भी कोई नहीं जानता था। तभी किसी के जोरों से हंसने की आवाज आई। ये संपाति था, गिद्ध राज जटायु का बड़ा भाई। वो हमें खाना चाहता था लेकिन हमने उसे पूरी कहानी सुनाई। उसने कहा मैं सीता तक तो नहीं जा सकता क्योंकि मेरे पंख जल चुके हैं लेकिन मैं अपनी दृष्टि से देखकर ये बता सकता हूं कि सीता समुद्र के पार लंका में ही है।
अब ये विचार शुरू हुआ कि समुद्र पार जाएगा कौन? अंगद जाने को तैयार हुए लेकिन जामवंत ने उन्हें रोक दिया। जामवंत ने फिर मुझे अपने जन्म और शक्तियों के बारे में बताया। मेरे भीतर एक ऊर्जा भर दी। मैं भगवान की दी हुई मुद्रिका मुख में रखकर लंका की ओर उड़ चला। रास्ते में कई परेशानियां आईं, सुरसा और सिंहिका जैसी राक्षसियों ने रोकने का प्रयास किया लेकिन सबको शांत करते हुए लंका तक पहुंच ही गया। सीता को खोजते हुए मेरी भेंट रामभक्त विभीषण से हुई। रावण का सहोदर लेकिन स्वभाव में उससे पूर्ण विपरीत। विभीषण ने अशोक वाटिका के बारे में बताया। वहां पहुंचकर देखा तो रावण अपने दल-बल के प्रभाव दिखा कर डरा रहा था। उसके जाते ही मैंने माता सीता के सम्मुख राम मुद्रिका डाल दी। माता आश्चर्यचकित थीं। मैंने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाया।
रावण को संकेत देने के लिए उसकी अशोक वाटिका भी उजाड़ दी और उसके पुत्र अक्षकुमार को भी मार दिया। इंद्रजीत ने नागपाश में मुझे बांधकर लंकापति के सामने प्रस्तुत किया। लंकापति रावण को मैंने समझाने का प्रयास किया लेकिन उसने क्रोधित होकर मेरी हत्या के आदेश सेवकों को दे दिए। विभीषण ने उन्हें रोका। दूत को मारना न्यायसंगत नहीं है। रावण ने कहा इसकी पूंछ में आग लगा दो। रक्षकों ने नगर में ले जाकर मेरी पूंछ पर कपड़ा लपेटकर जला दिया। मैं उछलकर एक भवन पर चढ़ा और एक के बाद एक सारे भवन जला दिए। सिर्फ विभीषण का घर छोड़ दिया। राम भक्त के घर तो अग्नि हवन और यज्ञ के रुप में ही पहुंच सकती है। और किसी रुप में नहीं। पूंछ की आग बुझाकर माता सीता से एक निशानी लेकर मैं फिर प्रभु राम की ओर चल पड़ा। मन में विभीषण के लिए कृतज्ञता थी, प्रेम था। शत्रु के घर में प्राणों की रक्षा करने वाला मित्र था विभीषण।
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