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Bhakti Sutra 4 Osho's Wisdom

ओशो भक्ति सूत्र के माध्यम से आत्मिक जागरण की एक अनोखी यात्रा पर चलिए। इस वीडियो में हम ओशो के भक्ति सूत्र का गहन विश्लेषण करेंगे और जानेंगे कि किस प्रकार यह आपको जीवन में सच्ची भक्ति, शांति और आत्मिक आनंद तक ले जा सकता है। ओशो की शिक्षाएं न केवल हमारे भीतर की यात्रा को सरल बनाती हैं, बल्कि हमें सच्चे आत्मिक प्रेम और जागृति की ओर भी ले जाती हैं। अगर आप भी अपने जीवन में आध्यात्मिक उन्नति और संतुलन पाना चाहते हैं, तो इस वीडियो को अंत तक देखें और ओशो की भक्ति से प्रेरित हों।

Embark on a unique journey of spiritual awakening through Osho Bhakti Sutra. In this video, we will delve deep into Osho’s teachings on devotion, exploring how these sutras can guide you towards true devotion, peace, and inner bliss. Osho's insights make our inner journey easier, leading us to genuine spiritual love and enlightenment. If you are seeking spiritual growth and balance in your life, watch this video till the end and find inspiration through the teachings of Osho Bhakti.

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Transcript
00:00:00पहला प्रस्म
00:00:02जीवन की विर्थता का बोध ही
00:00:06क्या जीवन में अर्थवत्ता का प्रारम भबिन्दू बन जाता है?
00:00:14बन सकता है, ना भी बने
00:00:18संभाव ना खुलती है, अनिवारिता नहीं
00:00:25जीवन की विर्थता दिखाई पड़े
00:00:29तो परमात्मा की खोज सुरू हो सकती है, सुरू होगी ही
00:00:35ऐसा जरूरी नहीं
00:00:38जीवन की विर्थता पता चले तो आदमी निरास भी हो सकता है
00:00:44आसा ही छोड़ दे
00:00:48विर्थता में ही जीने लगे
00:00:53विर्थता को सुईकार कर ले
00:00:57खोज के लिए कदम न उठाए
00:01:00तो जीवन तो दूबर हो जायेगा
00:01:04परमात्मा की यात्रा नहोगी
00:01:09इतने तो सच है कि जिसने जीवन की विर्थता नहीं जानी वो परमात्मा की खोज पर नहीं जायेगा
00:01:19जाने की कोई जरुवत नहीं
00:01:23अभी जीवन में ही रस आता हो
00:01:26तो किसी और रस की तरफ आँख उठाने का कारण नहीं
00:01:31फिर जीवन की विर्थता समझ में आये
00:01:34तो दो संभावना है
00:01:37या तो तुम उसी विर्थता में रुक के बैठ जाओ
00:01:42और या उस विर्थता के बार सार्थता की खोज करो
00:01:49तुम पर निर्भर है
00:01:51नास्तिक और आस्तिक का यहीं फर्क है
00:01:57यहीं फर्क की रेखा है
00:01:59नास्तिक वह है जिसे जीवन की व्यर्थता तो दिखाई पड़ी
00:02:04लेकिन आगे जाने की
00:02:07उपर उठने की
00:02:11खोच करने की सामर्थ नहीं
00:02:14रुख गया, नहीं मैं रुख गया
00:02:18हां की तरफ न उठ सका
00:02:20निसेद को ही धर्म मान लिया
00:02:22विदेह की बात ही भूल गया
00:02:25आस्तिक नास्तिक से आगे जाता है
00:02:31आस्तिक नास्तिक का विरोध नहीं अतिक्रमन
00:02:37आस्तिक के जीवन में भी नास्तिकता की
00:02:42का पड़ाव आता है
00:02:44लेकिन उस पर वो रुख नहीं जाता
00:02:48वो उसे पड़ाव ही मानता है
00:02:52और उससे मुक्त होने की चेश्था में संदगन हो जाता है
00:02:56क्योंकि जहां नहीं है
00:02:59वहां हाँ भी होगा
00:03:01और जिस जीवन ने हमने विर्थता पहचान ली है
00:03:05उस जीवन के किसी तल की गहराई पर
00:03:09सार्थता भी छीपी होगी
00:03:11अनिथा व्यर्थता का भी क्या आर्थ होता है
00:03:14जिसमें दुख जाना
00:03:16वो सुख को जानने में समर्थे
00:03:19अनिथा दुख को भी न जान सकता है
00:03:21जिसमें अंधकार को पहचाना
00:03:26उसके पास आखे हैं
00:03:29जो प्रकास को भी पहचानने में समर्थे
00:03:32अंधों को अंधेरा नहीं दिखाई पड़ता है
00:03:37साधरानता हम सोचते हैं कि अंधे अंधेरे में जीते होंगे गलत है ख्याल
00:03:42अंधेरे को देखने के लिए भी आँख शाहिए
00:03:45अंधेरा भी आँख की ही प्रतिती है
00:03:50तुम्हें अंधेरा दिखाई पड़ता है आँख बंद कर लेने पर
00:03:55क्योंकि अंधेरे को तुमने देखा है
00:03:58जन्म से अनमांध व्यक्ति को
00:04:01अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता
00:04:04देखा ही नहीं है कुछ
00:04:07अंधेरा कैसे दिखाई पड़ेगा
00:04:10तो जिसको अंधेरा दिखाई पड़ता है
00:04:12उसके पास आँख है
00:04:14अंधेरे में ही रुख जाने का कोई कारण नहीं है
00:04:19और जब अंधेरा, अंधेरे की तरह मालूम पड़ता है
00:04:23तो साफ है
00:04:24कि तम्हारे भीतर चिपा हुआ
00:04:26प्रकास का भी कोई स्रोथ है
00:04:29अन्य था अंधिरे को अंधिरा कैसे कहते है
00:04:32कोई कसोटी है तुम्हारे भीतर
00:04:36कहीं गहरे में छिपा मापदंड है
00:04:41अंधिरे पर कोई रुख जाये तो नास्तिक
00:04:45अंधिरे को पहचान के प्रकास की खोज में निकल जाये तो आस्तिक
00:04:50अंधेरे को देखके कहने लगे
00:04:54अंधेरा ही सब कुछ है तो नास्तिक
00:04:56अंधेरे को जानके
00:04:59अभियान पर निकल जाए
00:05:02खोजने निकल जाए
00:05:05कि प्रकास भी कहीं होगा
00:05:08जब अंधेरा है तो प्रकास भी होगा
00:05:11क्योंकि विप्रित सदा साथ मौजूद होते
00:05:16जहां जन्म है वहां मृत्य होगी
00:05:20जहां अंधेरा है वहां प्रकास होगा
00:05:24जहां दुख है वहां सुख होगा
00:05:27जहां नर्क अनुभव किया है
00:05:30तो खोजने की ही बात है
00:05:33स्वर्ग भी ज़्यादा दूर नहीं हो सकता
00:05:35स्वर्ग और नर्क पड़ोस पड़ोस में
00:05:38एक दूसरे से जुड़े
00:05:41अगर तुमने जीवन में क्रोध का अनुभव कर लिया
00:05:46तो समझ लेना कि करुणा भी कहीं छिपी है
00:05:50खोजने की बात है
00:05:51तुमने पहली पर्थ छूली करुणा की
00:05:55क्रोध पहली पर्थ है करुणा की
00:05:57अगर तुमने ग्रणा को पहचान लिया तो प्रेम को पहचानने में देर भला लगे
00:06:04लेकिन असंभावना नहीं प्रस्न महत्वपूर है जीवन की व्यर्थता तो अनिवारी है
00:06:18लेकिन पर्याप्त नहीं उतने को ही परमात्मा की सुरुवात्मा समझ लेना उतने से ही अधातों का बिंदू ना आ जायेगा
00:06:29उतना जरूरी है उतना तो चाहिए ही पर उस पर तुम रुख भी सकते हो
00:06:38पस्चिन में बड़ा विचारक है जियाँ पालसात्र वो कहता है अंधेरा ही सब कुछ है
00:06:47दुख ही सब कुछ है दुख के पार कुछ भी नहीं दुख के पार तो सिर्फ मनस्यों की कल्पनाओं का जाल है
00:06:56विसाद सब कुछ है, संताप सब कुछ है, संत्राज सब कुछ है, बस नर्ख ही है स्वर्ग नहीं
00:07:06बुधने भी एक दिन जाना था, दुख है, सातर ने भी जाना की दुख है, यहां तक दोनों सांसांत, फिर राहें अलग हो जाती
00:07:17फिर बुधने खोजा की दुख क्यों है, और दुख है, तो दुख के बेपरी, दुख का निरोध भी होगा
00:07:26तो वे खोज पर गए है, दुख का कारण खोजा, दुख मिटाने की विधियां खोजी, और एक दिन उस इस्थिति को अपलब्द हो गए, जो दुख निरोध की है, आनन्द की है
00:07:39सात्र पहले कदम तो रुख गया, बुद्ध के साथ थोड़ी दूर चलता है, फिर ठहर जाता है, वो कहता है, आगे कोई मार्ग नहीं, बस यहीं सब समाप्त हो जाता है
00:07:49तो सात्र अंधकार को ही स्विकार करके जीने लगे, ऐसे ही तुम भी जी सकते हो, तब तुम्हारा जीवन एक बड़ी उदासी हो जाएगी, तब तुम्हारे जीवन से सारा रस सूख जायेगा, तब तुम्हारे जीवन में कोई फूल न कहलेंगे, कांटे ही कांटे रह जा
00:08:19कोगे की कल्पना नहें
00:08:21तो मुस्टे सुईकार ना करोगे
00:08:23अगर किसी और के जीवन में फूल कहलेगा
00:08:26तो तुम इंकार करोगे
00:08:27कि जूंत होगा, आत्मवंचना होगी
00:08:30दोखा होगा
00:08:31बेअमानी होगी
00:08:34फूल होटे ही नहीं
00:08:36तो तुमने
00:08:37अपने ही हात
00:08:38अपने को कारा ग्रह में बंद कर लिया
00:08:42फिर तुम तर्पोगे
00:08:45कोई दूसरा तुम्हें इस कारा ग्रह के बाहर नहीं ले जा सकता
00:08:50अगर तुम्हारी ही तरफ तुम्हें बाहर उठने की सामर्थ नहीं देती
00:08:55और तुम्हारी ही पीड़ा तुम्हें नई खोच का संबल नहीं बनती
00:09:00तो कौन तुम्हें उठाएगा
00:09:02लेकिन एक ना एक दिन
00:09:05उठोगे
00:09:07क्योंकि पीड़ा को कोई सास्वत रूप से स्वीकार नहीं कर सकता
00:09:12एक जन्म में कोई सात्र हो सकता है
00:09:15सदा सदा के लिए सात्र नहीं हो सकता
00:09:17आज सात्र हो सकता है
00:09:20सदा सदा के लिए सात्र नहीं हो सकता
00:09:22क्योंकि दुख का सभाव ऐसा है
00:09:24कि उसे स्वीकार करना असंपह हो है
00:09:26दुख का अर्थ ही यह होता है
00:09:29कि जिसे हम स्वीकार न कर सकेंगे
00:09:31गड़ी भर को समझा लें बुजा लें
00:09:33कि ठीक है यही सब कुछ है
00:09:35इससे आगे कुछ भी नहीं
00:09:36लेकिन फिर फिर
00:09:39मन आगे जाने लगेगा
00:09:42क्योंकि मन जानता है गहरे में
00:09:45सुख है
00:09:46उसी आधार पर तो हम पहचानते हैं दुख को
00:09:52हमने जाना है
00:09:55सैद गहरी नीन में
00:10:00हमें सुक का थोड़ा सा स्वाद मिला है
00:10:04पतंजली ने योगसूत्रों में
00:10:06समाधी की व्याथ्या सुसुप्ती से किये
00:10:08कि वो प्रगाळ निद्रा है
00:10:10जैसा सुसुप्ती में सुख मिलता है सुभए उठकर
00:10:15राथ गहरी नीन सोये
00:10:17कुछ याद नहीं पढ़ता
00:10:19लेकिन एक भीनी सी सुगंध
00:10:21सुभे तक भी तुम्हें गेरे रहती
00:10:24कुछ याद नहीं पढ़ता
00:10:26कहां गए
00:10:26क्या हुआ
00:10:28लेकिन गए गई
00:10:30और आनन से सरो भोरों के लोटे
00:10:33कहीं दुपकी लगाई
00:10:34अपने में ही गहरा कोई तल चुआ
00:10:37कहीं विस्राम मिला
00:10:40कोई चाया के तले ठहरे
00:10:43वहां दूपना थी
00:10:45वहां गहरी सांती थी
00:10:49वहां कोई विचारों की तरंगें भी न पहुंसती थी
00:10:52कोई सुपने के जाल भी न थे
00:10:55अपने में ही कोई ऐसी गहरी सरन
00:10:58कोई ऐसा गहरा सरण इस्थल पा लिया
00:11:02सुबह उसकी सिर्फ हल की खबर रह जाती
00:11:05दूर सुने गीत की गुनगुन रह जाती
00:11:08रात गहरी नीन सोय तो सुबह तुम कहते हो
00:11:12बड़ी गहरी नीन दाई बड़े आनंदित उठे
00:11:14सायद गहरी नीत्रा में तुम वही जाते हो
00:11:21जहां योगी समाधी में जाता है
00:11:24गहरी नीत्रा में तुम वही जाते हो
00:11:27जहां बगती भाव की अवस्था में पहुँचाती
00:11:31गहरी नीत्रा में तुम उसी तलिंता को छूते हो
00:11:35जिसको भक्त बगवान में डूब के पाता है
00:11:40थोड़ा फर्क है
00:11:41तुम बेहोसी में पाते हो वो होस में पाता है
00:11:44वही फर्क बड़ा फर्क है
00:11:47इसलिए सुबह तुम इतना ही कह सकते हो सुखत है
00:11:51अच्छी रही रात
00:11:54लेकिन भक्त नाचता है
00:11:57क्योंकि ये कोई बेहोसी में नहीं पाया अनभोग, होस में पाया
00:12:02तो कभी मीन के किनी चणों में तुमने भी जाना है
00:12:06तभी तो तुम दुक को पहचानते हो ने तो पहचान होगे कैसे
00:12:09साहथ बच्पन के चणों में जब मन भोला भाला था
00:12:17और संसार ने मन को विक्रत न किया था
00:12:21वासनाएं अभी जगी न थी, कामनाओं ने अभी खेल शुरू न किया था
00:12:27अभी तुम ताजे ताजे परमात्मा के गर से आये थी
00:12:32तब से आये थी, सुभे की धूप में बैठे हुए
00:12:36फूलों को बगीचे में चुनते हुए
00:12:41या तितलियों के पीछे दौरते हुए
00:12:43तुमने कुछ सुख जाना है, जो विचार के अती थी
00:12:48तुमने कोई तल्लीम था जानी, जहां तुम खो गए थे
00:12:52कोई विराट सागर रह गया था, बून ने अपनी सीमा छोड़ती थी
00:13:06चले जाते हैं, अगर कोई तरक्युक्त व्यक्ति मिल जाया है, कहें कि
00:13:10सिद्ध करो, क्या था बच्पन में स्वर्ग, तो तुम सिद्ध न कर पाओ,
00:13:14वो भी गहरी नींद कानुभा हो गया आप, अब याद रह गई है,
00:13:18खुद भी तुम्हें पकका भरोसा नहीं कि ऐसा हुआ था, बूली गया है, क्योंकि जिसका तुम्हारे जीवन से संगती नहीं बैठती, वो धीर धीरे विसमरन हो जाता है, धीर धीरे तुम उसी को याद रख पाते हो, जिसका तुम्हारे मन के धाचे से मेल बैठता है,
00:13:39बेमेल बातों को हम छोड़ देते
00:13:41बेमेल बातों को याद रखना मुश्किल हो जाता है
00:13:46तो कहीं कहीं कोई अन्भव तुम्हारे भी तरहें
00:13:53कभी प्रेम के गहरे छण में
00:13:55किसी से प्रेम हुआ हो
00:13:58मन ठेटक गया हो
00:14:03सौंदरी के साक्षातकार में
00:14:06या कभी चांदनी रात में
00:14:09आगास को देखते हुए
00:14:10मन मौन हो गया हो
00:14:13तो तुमने सुक की जलब जानी
00:14:15एक किरन तुम्हारे जीवन में कभी न कभी उतरी
00:14:19उसी से तो तुम पहचानते हो कि ये अन्धेरा है
00:14:22किरन न जानी हो तो अन्धेरे को अन्धेरा कैसे कहोगे
00:14:36तो जो रुख जाए जीवन की व्यर्थता पर वो नास्तिक
00:14:44इसलिए नास्तिक को मैं आस्तिक जितना साहसी नहीं कहता
00:14:55जल्दी रुख गया
00:14:56पड़ाओ को मुकाम समझ लिया
00:15:00आगे जाना है और आगे जाना है
00:15:05एक बड़ी पुरानी सूफी कता है
00:15:08कि फकीर जंगल में बैठा था
00:15:11वो रोज एक लकड़ारे को लकड़ियां काटते हुए
00:15:15ले जाते लाते देखता था
00:15:17उसकी दीनता उसके फटे कपड़े
00:15:19उसकी हड़ियों से भरी दे
00:15:22उसे दया आ गई
00:15:24वो जब भी निकलता था लकड़ारा
00:15:27तो उसके चरणश हो जाता था
00:15:29एक दून उसने का कि कल जब तू लकड़ी काटने जाए
00:15:33आगे जा और आगे जा
00:15:37लकड़ारा कुछ समझा नहीं
00:15:42लेकिन फकीर में कहा है तो कुछ मतलब होगा
00:15:44ऐसे कभी ये फकीर बोलता ना था
00:15:47तहली दफ़ा बोला है आगे जा और आगे जा
00:15:49तो जहाँ वो लकड़ीयां काटता था जंगल में थोड़ा आगे गया
00:15:53चकित हुआ
00:15:54सुगंद सोसके नासा पुट भर गए
00:15:57चंदन के ब्रक्षते
00:16:01वहाँ तक वो कभी गया ही न था
00:16:04उसने चंदन की लकड़ीयां काटी
00:16:07चंदन को बेचा
00:16:09तो उस रात खुसी में रोया
00:16:14दुख में भी खुसी में भी
00:16:16कि अगर यही लकड़ीयां आप तक काटके बेची होती ही
00:16:19तो करोलपती हो गया होता
00:16:21पर अब गरी भी मिट गई
00:16:23दोसे दिन जब चंदन की लखड़ी फिर काट रहा था
00:16:27तो उसे ख्याल आया है
00:16:28कि फकेर ने ये नहीं कहा था कि चंदन की लखड़ी तक जा
00:16:32उसने कहा था और आगे और आगे
00:16:34तो उसने चंदन की लखड़ी नह काटी और आगे गया
00:16:39तो देखा कि चांजी की एक ख़दान
00:16:41फिर तो उसके हाथ में सुत्र लग गया
00:16:46फिर और आगे गया तो सोने की ख़दान
00:16:49फिर और आगे गया तो हीरों की ख़दान पर पहुँच गया
00:16:53और आगे हैं
00:16:58जब तक कि हीरों की ख़दान ना आ जाए
00:17:01उसको ही हम परमात्मा कहते
00:17:03तुम लकड़ारों की तरह लकड़ियां ही बेचर थोड़ी ही दूर आगे
00:17:09चंदन के वन है
00:17:11तुम विचारों में ही उल्चे हो जहां लकड़ियां ही लकड़ियां है
00:17:15बड़ी सस्ती उनकी कीमत है थोड़े निर्विचार में चलो
00:17:19चंदन के वन है
00:17:20बड़ी सुगंध है वा
00:17:22और थोड़े गहरे चलो
00:17:25तो समाधी की खदाने
00:17:27और गहरे चलो
00:17:29तो निर्वीज समाधी
00:17:32निर्विकल्प समाधी की खदाने
00:17:34और गहरे चलो
00:17:35तो स्वयम परमात्मा है
00:17:36योगी कदम कदम जाता है
00:17:39रुक रुक के जाता है
00:17:49पढ़ाओ भी नहीं बनाता, वो सिधा तल्मीनता में डूप जाता है, योगी से भी जादा हिम्मत भक्त की है, नास्तिक से जादा हिम्मत आस्तिक की है, योगी से भी जादा हिम्मत भक्त की है, क्योंकि भक्ती सीलियां भी नहीं बनाता, तो एक गहरी छलांग लेता है, जिस
00:18:19इस अनुभो पर आना अक्किन्त जरूरी है कि जीवन विर्थ है
00:18:25अंधेरी रात तूफान तलातुम नाखुदा गाफिल
00:18:33यह आलम है तो फिर किस्कस्ती सरे मौजे रवा कब तक
00:18:39अंधेरी रात सब तरफ अंधेरा है
00:18:43कुछ सूझता नहीं हाथ को हाथ नहीं सूझता तूफान तलातुम बड़ी आंधिया हैं बड़े तूफान
00:18:51सब उखड़ा जाता है कुछ ठेरा नहीं मालूम पड़ता है बड़ी अराजकता है ना खुदा गाफिल
00:18:57और जिसके हाथ में कस्ती है
00:19:02वो जो माची है वो सोया हुआ है बेहोस है यह आलम है ऐसी हालत है तो फिर किस्ती सरे मौजे रवा कब तक तो इस किस्ती का
00:19:20वविष्य क्या है यह नाव अब डूबी तब डूबी इस नाव में आसा बांधनी उचित नहीं इस नाव के साथ बंदे रहना उचित नहीं
00:19:36लेकिन जाओगे कहां भागो के कहां यही कस्ती तो जीवन है
00:19:48तुम सोय हो मूर्चित तुफान बहंकर है अंधेरी रात है डूबने के सिवाए कोई जगे दिखाई नहीं पड़ती लेकिन डूबना दो ढंका हो सकता है
00:20:01एक कस्ती दुबा है तब तुम डूबो और एक कस्ती में बैठे बैठे तुम डूबने के लिए कोई सागर खोज लो
00:20:11उस सागर को ही हम परमात्मा कहते हैं अच्छा यकीन नहीं है तो कस्ती डुबो के देख एक तु ही ना खुदा नहीं जालिम खुदा भी है
00:20:27तो फिर हम्मित आ जाती है फिर आदमी कहता है कि ठीक
00:20:32तो अगर माजी तू चाहता ही है कि कस्ती डुबानी है तो डुबा के देख
00:20:38तू ही अकेला नहीं है माजी तू से उपर खुदा भी है
00:20:43एक तू ही ना खुदा नहीं जालिम खुदा भी है
00:20:47फिर अंधेरी रात, तुफान, कस्ती का अब दूबा, तब दूबा होना
00:20:55सब दूर की बातें हो जाती
00:20:58तुम भीतर कहीं एक ऐसी जखे लंगर डाल देते हो
00:21:02जहां तुफान छूते ही ने
00:21:05जहां रात का अंधेरा प्रवेशी नहीं करता
00:21:10और जहां किसी नाखुदा की किसी माजी की जरूरत नहीं है
00:21:14क्योंकि वहां परमात्मा ही माजी है
00:21:16जरूरी है कि जीवन की व्यर्थता दिखाई पड़ जाए
00:21:22बहुत हैं जो जीवन की व्यर्थता बिना देखे
00:21:28आस्तिक्ता में अपने को डूबाने की चेश्ठा करते हैं
00:21:32वे कभी न डूब आएंगे
00:21:33वे चुलू भर पानी में डूबने की चेश्ठा कर रहे
00:21:37वे अपने को दोखा दे रहे
00:21:42जब तक तुम्हारे जीवन की जणे उखण न गई हो
00:21:46जब तक तुम्हारा रोऊब कपना गया हो
00:21:55जीवन के अन्धकार से
00:21:57जब तक तुम्हारी चाती भैभीतना हो गई हो
00:22:03तब तक तुम जिस आस्तिक्ता की बातें करते हो
00:22:07वो संत वना होगी शत्य नहीं
00:22:11जब तक तुम जिन मंदिरों और मज़ितों में पूजा उपासना करते हो
00:22:16वो पूजा उपासना है
00:22:18दोखा दड़ी
00:22:19वो तुम्हारा उपचारिक बैवहार है
00:22:23वो संसकार वसात है
00:22:26उससे तुम्हारे जीवन का सीधा कोई संबंध नहीं
00:22:31वो मंदिर तुमने अपनी प्रग्या से नहीं खो जाए
00:22:36उधार है
00:22:37उधार परमात्मा असली परमात्मा ने
00:22:41उसे तो तुम्हें अपने को चुका के ही
00:22:45अपने को दान में दे कर ही
00:22:46अपना सर्वस लुटा कर ही पाना होगा
00:22:49वो तो तुम जब तक सूली पर न लटक जाओ
00:22:53तब तक उस सिहासन तक न पहुच पाओगे
00:22:57तो पहली तो इसमर्ण रखने की बात ये है कि
00:23:02कहीं जल्दी में आस्तित मत हो जाए
00:23:04ये कोई जल्दी का काम नहीं
00:23:06बड़ी गहन प्रतिक्षा चाहिए
00:23:09और
00:23:10ये कोई सांतवना नहीं है कि तुम ओढ़ लो
00:23:14संक्रांती है
00:23:17संतवना नहीं है परमात्मा संक्रांती है
00:23:21महाक्रांती है
00:23:23तुम जो हो मिटोगे
00:23:26और तुम जो होने चाहिए वो प्रगठ होगा
00:23:28तो सस्ती आस्तिक्ता कहीं नहीं ले जाती
00:23:34सस्ती आस्तिक्ता से तो असली नास्तिक्ता बहतर है
00:23:38कम से कम उस परिधी पर तो खड़ा कर देती है
00:23:41जहां से आगे कदम चाहो तो उठा सकते हो
00:23:45जूटी नास्तिक्ता से तो कोई कभी कहीं नहीं गया है
00:23:49जाहीं नहीं सकता
00:23:51जूटी प्रार्थना कभी नहीं सुनी गई है
00:23:56तुम कितने ही जोर से चिलाओ
00:23:59तुम्हारी आवाज के जोर से प्रार्थना का कोई संबंध नहीं
00:24:05तुम्हारे हिर्दे की सचाई से
00:24:09तुम्हारी विनम्रता से
00:24:11तुम्हारे निरहनकार भाव से
00:24:14तुम्हारे असहाय भाव से
00:24:17जब तुम्हारी प्रार्थना उठेगी
00:24:19तो पहुच जाती
00:24:20तो जर्र जर्र
00:24:22कंड कंड अस्तित्व का तुम्हारा सहयोगी हो जाता
00:24:26तो पहली तो जूटी आस्तित्ता से बचना
00:24:29फिर नास्तित्ता में मत उलत जाना
00:24:32नास्तित होना जरूरी है, बने रहना जरूरी नहीं, एक ऐसी घड़ी आएगी जब अंधेरा ही अंधेरा दिखाई पड़ेगा, तुफान ही तुफान होंगे, कहीं कोई सहारा ना मिलेगा, सब सहारे जूट मालम होंगे, राह बटक जाएगी, तुम बिलकुल अजनभी की त
00:25:02बढ़ा के बैठ मत जाना, यहीं से सुरुवात होती, यहीं से अगर तुम ने आगे कदम उठाया, तो उपासना है, भक्ति. यहीं से आगे कदम उठाया, तो सनसार के पार परमातना की सुरुवात होती.
00:25:20जूटी नास्तिक्ता से बचना है
00:25:25जूटी आस्तिक्ता से बचना है
00:25:29नास्तिक्ता सच्ची हो
00:25:33तो भी उसको घर नहीं बना लेना है
00:25:37असली नास्तिक्ता के दुख को जेलना है
00:25:41ताकि उस पिरा के बाहर असली आस्तिक्ता का जन्म हो सके
00:25:50दूसरा प्रसन इस विराट अस्तित्व में मैं ना कुछ हूँ
00:26:00यह अपरी तथ सुईकारने में बहुत भै पकड़ता है
00:26:04इस भै से कैसे उपर उठा जाए
00:26:07अपरी कहोगे तो सुरू से ही व्याख्या गलत हो गई
00:26:13फिर भै पकड़ेगा
00:26:16अपरी कहना ही गलत है
00:26:20फिर से सोचो
00:26:23ना कुछ होने में अपरी क्या है
00:26:26वस्तुता कुछ होने में अपरी है
00:26:31क्योंकि जीवन के सारे दुख तुम्हारे कुछ होने के कारण पैदा होते
00:26:36एहंकार गाव की तरह है
00:26:40और जब तुम्हारे भीतर गाव होता है और एहंकार से बड़ा कोई गाव नहीं नासूर है
00:26:48तो हर चीज़ चोट लगती है, हर चीज़ से चोट लगती हर चीज़ से पीड़ा आती
00:26:54जरा कोई टकरा जाता है और पीड़ा आती
00:26:57हवा का जोखा भी लग जाता है तो पीड़ा आती
00:27:01अपना ही हाँ छू जाता है तो पीड़ा आती
00:27:05एहंकार का अर्थ है मैं कुछ हूँ
00:27:11अगर तुम जीवन की सारी पिराओं की फेरिस्ट बनाओ
00:27:15तो तुम पाओगे वो सब एहंकार से प्यदा होती
00:27:18लेकिन तुमने कभी गौर से इससे देखा नहीं
00:27:24तुम तो सोचते हो पिरा तुम्हें दूसरे लोग देते
00:27:28किसी ने तुम्हें गाली दी तो तुम सोचते हो ये आदमी गाली दे के मुझे पिरा दे रहा है
00:27:34वे आख्या की भूल है विसलेशन की चूक है
00:27:39दरश्टी का अभाव है आँख खोल के फिर से देखो
00:27:45इस आदमी की गाली में अगर कोई भी पिरा है तो इसी लिए है
00:27:50कि तुम्हारे भीतर एहंकार उस गाली से चूके दुखी होता है
00:27:55अगर तुम्हारे भीतर एहंकार नहो तो इस आदमी की गाली तुम्हारा कुछ भी न बिगाड़ पाएगी
00:28:01तुम सादमी की गाली को सुन लोग और अपने मार्क पे चल पड़ोगी
00:28:07हो सकता है इस आदमी की गाली तुम्हारे मन में करुणा को भी जगा है
00:28:15कि बेचारा नहाखी व्यर्थ की बातों में पड़ा है
00:28:20लेकिन गाली उसकी तुम्हें पीड़ा दे जाती क्योंकि तुम्हारे पास एक बड़ा मारमे की स्थल
00:28:27जो तयार ही है पीड़ा पकड़ने को
00:28:30बड़ा संवेदन सील है
00:28:33बड़ा नाजुक है
00:28:34और हर घड़ी तयार है
00:28:37कि कहीं से पीड़ा आये तो वो
00:28:39पीड़ा पर ही जीता है
00:28:42तो जरूरी नहीं कि कोई गाली दे
00:28:45राह पर कोई बिना नमस्कार किये निकल जाये
00:28:48तो भी पिड़ा आजाती
00:28:50कोई तुम्हें देखे और अंदेखा कर दे
00:28:54तो भी पिड़ा आजाती
00:28:56रहा पर दो आदमी हस रहे हो
00:29:02तो भी पिड़ा आजाती
00:29:04कि साथ मेरे लिए ही हस रहे है
00:29:06दो आदमी
00:29:08एक दूसरे के कान में
00:29:10खुसर पुसर कर रहे हो
00:29:12तो पीड़ा आ जाती कि साथ मेरे लिए ही
00:29:15ये जो मैं है बड़ा रुखने है
00:29:20इसको लेके तुम कभी भी स्वस्थ हो और सुखी न हो पाओगे
00:29:25तो अगर अपरी कहना हो तो एहंकार को कहना है
00:29:32और यही एहंकार तुम से कहता है
00:29:35डरो प्रेम से डरो क्योंकि प्रेम में इसे छोड़ना पड़ेगा
00:29:40भक्ती से डरो क्योंकि भक्ती में तो ये बिल्कुल ही डूब जायेगा
00:29:44प्रेम में चनबर को डूबेगा भक्ती में सास्वत सदा के लिए डूब जायेगा
00:29:48बचो, यह एहंकार कहता है, ऐसी जगे जाओ ही मत, जहां डूबने का डर हो, बच के चलो, सम्हल के चलो, और यही एहंकार तुम्हारी पीडा का कारण है, ऐसा समझो कि नासूर लिए चलते हो, और चिकिस्सक से बचते हो,
00:30:08इस विराट अस्तित्म में मैं ना कुछ हूँ यह अपरी तत्सुईकारने में बहुत भै पकड़ता है, यह भै तुम्हे नहीं पकड़ रहा है, यह भै उसी एहंकार को पकड़ रहा है, जो कि डूबने से, तल्लीन होने से भैभी थे, क्योंकि तल्लीनता का अर्थ मौत है, ए
00:30:38तुम्हारे लिए परम जीवन की उपलब्ति होगी
00:30:42उसी मृत्यू से तुम पहली बार अमरत का दर्सन करोगे
00:30:48लेकिन तुम्हारे लिए एहंकार के लिए नहीं
00:30:52यह जो तुम्हारे भीतर मैं की गांट है
00:30:55यह गांट दुख दे रही है
00:30:58इस अपरी मैं को पहचानो
00:31:02तो तुम पाओगे कि निर एहंकारता से ज़्यादा प्रिति करो और कुछ भी ने
00:31:09और जिसे निर एहंकारिता आ गई सब आ गया
00:31:14फिर उसे किसी मंदर में जाने की जरुवत नहीं
00:31:19निर एहंकारिता का मंदर जिसे मिल गया
00:31:22वो पत्थरों के मंदर में जाए भी क्यों
00:31:26निर एहंकारिता का मंदर जिसे मिल गया उसके तो अपने ही भीतर के मंदर के द्वार खुल गए
00:31:33अदब आमोज है मैं खाने का जर्रा जर्रा
00:31:41सैक्रों तरह से आ जाता है सिजदा करना
00:31:45इसक पावंदे वफा है ना कि पावंदे रसूम
00:31:49सर जुकाने को नहीं कहते हैं सिजदा करना
00:31:53अदब आमोज है मैं खाने का जर्रा जर्रा
00:31:57अगर तुम गौर से देखो तो अस्तितु का कंकं विनमरता सिखा रहा है
00:32:02पूछो ब्रक्षों से
00:32:05पूछो परवतों से पहाडों से
00:32:08पूछो जर्णों से, पक्षियों से, पसुओं से, कहीं एहंकार नहीं
00:32:18अदब आमोज है, मैं खाने का जर्रा जर्रा, एक कनकन, पूरा अस्तित्व, एक ही बात सिखा रहा है, ना कुछ हो जाओ
00:32:28सैक्णों तरह से आ जाता है सिख्दा करना, और अगर तुम इन बातों को सुनो, जो अस्तित्व में गूंज रही सब तरफ से, सब दिसाओं से, तो सैक्णों रास्ते हैं, जिन से उपासना का सूत्र तुमारे हाथ में आ जाएगा, सिख्दा करना आ जाएगा, जुकने की कला
00:32:58नहीं, जरूरी नहीं है कि तुम ग्यानियों से ही सीखो, तुम अगर आँख खोल कर देखो तो सारा अस्तित्व तुम्हें सिखाने को तत पर है, यहां आदमी के सिवाय कोई एहंगार से पीलित नहीं, और इसलिए सिवाय आदमी के यहां कोई भी पीलित नहीं, आदमी ही �
00:33:28सतत चल रही है पूजा, आदमी की पूजा घड़ी दो घड़ी की होती, अस्तित्व की पूजा सतत है, तुम कभी आरती उतारते हो, तारे, चान, सुरज उतारते ही रहते हैं, आरती, चौबीस घंटे, सतत
00:33:47तुम कभी एक फूल चढ़ा आते हो, ब्रक्ष रोज ही चढ़ाते रहते पूल, तुम कभी जाके मंदर में गीत गुंगुना आते हो, पक्षी सुभे से सांच तक गुंगुना रहे, अगर गौर से देखो तो तुम सारे अस्तित्व को सिजिता करता हुआ पाओगे, सारे �
00:34:17फिर से देखो, देखा तो तुमने भी इसे है, ठीक आख से नहीं देखा, फिर से देखो, तुम हर ब्रक्ष को जुका हुआ पाओगे प्रात्ना में, हर जर्ने को उसी का गीत गाता हुआ पाओगे,
00:34:31अदब आमोज है मैं खाने का जर्रा जर्रा सैक्णों तरह से आ जाता है सिजदा करना
00:34:40इसक पाबंदे बफा है प्रेम आस्था की बात है स्रद्धा की बात है भरोसे की बात है
00:34:50इसक पाबंदे बफा है ना कि पाबंदे रसूम वो कोई नीती नियम की बात नहीं
00:34:56कोई रसूम की बात नहीं
00:34:58कोई नियम के आचरन की विधी
00:35:01अनुसासन की बात नहीं
00:35:04सिर्फ आस्था की बात है
00:35:06कोई मुसल्मान होना जरूरी नहीं
00:35:09कोई हिंदू होना जरूरी नहीं
00:35:11कोई इसाई होना जरूरी नहीं
00:35:13क्योंकि ये सब तो रीत नियम की बात है
00:35:15धार में खोने के लिए इनकी गोई भी जरुवत नहीं
00:35:18सिर्फ आस्था काफी है
00:35:21आस्था ना हिंदू है ना मुसल्मान
00:35:24आस्था ना जैन है ना बौत
00:35:26आस्था विसेशन रहे थे
00:35:30उतनी ही विसेशन रहे थे जितना की परमात्मा
00:35:33इसक पावंदे बफा है
00:35:37न कि पावंदे रसूम
00:35:39तो तुम कोई रीतिनियम से प्रात्ना मत करने बैठ जाना
00:35:45सीख मत लेना प्रात्ना करना
00:35:49क्योंकि वही अर्चन हो जाएगी
00:35:51असली प्रात्ना के जन्म होने
00:35:53प्रात्ना सहजी सुफूर्द हो
00:35:58सुरी के सामने सुबह बैठ जाना
00:36:02जो तुम्हारे हृरदे में आ जाए कह देना
00:36:05ना कुछ आए चुपचाप रह जाना
00:36:07सूरज कुछ कहे सुनलेना
00:36:10ना कहे तो इसके मौन में आनंदितो लेना
00:36:16बंदिवी पराथनाए मद दोराना
00:36:18क्योंकि बंदिवी पराथनाए कंठों में
00:36:21उस से نیचे नहीं जाती
00:36:24बस कंठों तक जाती, कंठों से आती
00:36:26इसलिए अक्सर तुम पाओगे
00:36:29कि जिनको प्राथना याद हो गए है
00:36:31वो प्राथना उसे वंचित हो गए
00:36:32वो प्राथना करते रहते
00:36:36उनके ओंट दोराते रहते हैं मंद्रों को
00:36:38और उनकी भीतर विचारों का जाल चलता रहता है
00:36:41फिर धीरे तो इतनी आदत हो जाती ही दोहराने की उससे कोई बाधाई ही नहीं पड़ती
00:36:48भीतर दुकान चलती रहती ओंटों पर मंद्र चलता रहता है
00:36:52इसक पावंदे बफा है ना कि पावंदे रसू
00:36:57प्रेम जानता ही नहीं रीत नियम क्योंकि प्रेम आखरी नियम है
00:37:02किसी और बैवस्था की जरुवत नहीं है प्रेम परियापत है
00:37:08प्रेम की अराजपता में भी एक अनुसासन है
00:37:13वो अनुसासन सहजिस्फूर्द है
00:37:17सर जुकाने को नहीं कहते हैं सजदा करना
00:37:21और सिर्फ सर जुकाने का नाम प्रात्ना नहीं है, खुद के जुक जाने का नाम प्रात्ना है, सर जुकाना तो बड़ा आसान है, मेरे पास लोग बच्चों को ले के आ जाते हैं, उस खुद सर जुकाते हैं, बच्चे खड़े रह जाते हैं, तो माँ उसका सर पकड़ के चर�
00:37:51वो खड़ा है, उसे सिर नहीं जुकाना है
00:37:54कोई कारण नहीं है सिर जुकाने का
00:37:56उससे मेरा कुछ लेना देना नहीं है
00:37:58माँ उसका सिर जुका रही, रसूम सिखाया जा रहा है
00:38:03नियम सिखाया जा रहा है
00:38:05दीर दीरे अब्यस्त हो जायागा
00:38:07बड़ा होते होते
00:38:09किसी की जुकाने की जुरूत न रह जाएगी
00:38:12खुद ही जुकने लगेगा
00:38:14लेकिन हर जुकने में
00:38:17वो मां का हाथ इसकी गरधन पर रहेगा
00:38:20ये बुढ़ापे तक
00:38:21जब भी जुकेगा
00:38:23तब इसे कोई जुका रहा है वस्तुता
00:38:25ये खुद नहीं जुक रहा है
00:38:27तुमने कभी ख्याल किया मंदिर में तुम जाके जुकते हो
00:38:31ये सिर्फ एक आदत थे
00:38:32ये आस्था है
00:38:35चुकि बच्छपन से माबाप इस मंदिर में ले गए थे
00:38:40जुकाया था एक दिन तुम्हारी गर्धन को तुम्हें सभी को याद होगा
00:38:45कि किसी नों किसी दिन माबाप में तुम्हारी गर्धन को जुकाया था
00:38:50किसी पत्थर की मुर्धी के सामने, किसी मंदिर में, किसी सास्तर के सामने, किसी गुरू के सामने
00:38:55याद करो उस दिन को
00:38:57फिर धीर धीर तुम अभ्यस्त हो गए
00:39:00फिर तुम भी संसार के रीतिनियम समझने लगे
00:39:03फिर तुमने भी आपचारिकता सीख ली
00:39:06वो बच्चा ज्यादा सुध है जो सीधा खड़ा
00:39:09उसे जुकना नहीं बात खत्म हो गई
00:39:10जुकने का उसे कोई कारण समझ में नहीं आता
00:39:13बात खत्म हो गई
00:39:14मा उसे एक जुट सिखा रही है
00:39:18समाज सभी को जुट सिखा रहा है
00:39:21आपचारिक आच्रण सिखा रहा है
00:39:24फिर दीर दीर दीर दीर पर्त पर्त जमत जमते
00:39:28ऐसी घड़ी आ जाती है कि तुम बड़े सरलता से जुकते हो
00:39:33और बिन जाने
00:39:36कि ये भी तुम्हारा जुकना नहीं
00:39:38ये सरल्ता भी जूटी है
00:39:41इस सरल्ता में भी समाज के हाथ
00:39:45तुम्हारी गर्धन को दबा रहें
00:39:46इस सरल्ता में भी तुम्हारी गुलामी
00:39:51और प्रेम गुलामी से कहीं पैदा हुआ
00:39:55परतंतरा से कहीं पैदा हुआ
00:39:58भक्ती तो परम स्वतंतरता है
00:40:01इसलिए छोड़ दो वो सब जो तुम्हें सिखाया गया हो
00:40:04ताकि अनसीखे का जन्म हो सके
00:40:07हटा दो वो सब
00:40:09जो तुमने दूसरों ने जबरजस्ती थे तुम्हारे उपर लादा हो
00:40:14निर्बोच हो जाओ
00:40:17फिर से सीखना पड़ेगा पाठ
00:40:22तुम्हारी सिलेट पर बहुत कुछ दूसरों ने लिख दिया है
00:40:27खाली करो उसे
00:40:29दो डालो
00:40:31ताकि फिर से तुम अपने सभाव के अनुकुल कुछ लिख सको
00:40:36इसक पाबंदे बफा है ना कि पाबंदे रसू
00:40:40सर जुकाने को नहीं कहते हैं सिच्दा करना
00:40:44प्राथना बड़ी अभूत पूर्व गटना है
00:40:51जुकना
00:40:53उसके आगे तो फिर कुछ और नहीं
00:40:58वो तो आखरी बात है
00:41:00क्योंकि जो जुक गया उसने पा लिया
00:41:03जो जुक गया वो भर गया
00:41:05वो भर दिया गया
00:41:06तुम तो रोज जुकते हो कुछ भरता नहीं
00:41:10तुम तो रोज जुकते हो खाली हाँत आ जाते हो
00:41:13धीरे धीरे तुम्हें ऐसा लगने लगता है
00:41:17कि जिसके सामने जुक रहे हैं वो परमात्मा जूटा
00:41:20क्योंकि इतनी बार जुके कुछ हाँत नहीं आता
00:41:23मैं तुम से कहता हूँ वो परमात्मा तुर सच तुम्हारा जुकना जूटा
00:41:28तुम कभी जुके ही नहीं
00:41:31दुनिया में नास्तिकता बढ़ती जाती है
00:41:34क्योंकि जुटी आस्तिकता कब तक साथ दे
00:41:37जब जस्ति जुकाई गई गर्धने कभी न कभी अकड़ के खड़ी हो जाएंगी
00:41:43और इतने बार जुकने के बार जब कुछ भी न मिलेगा
00:41:46तो स्वाभावेख के आदमी कहे क्या सार है
00:41:49क्यों जुके
00:41:52और स्वाभाविक है कि आदमी कहे इतनी बार जुकक कि कुछ ना मिला कोई परमात्मा नहीं
00:42:01ये तुम्हारी झुटी आस्थिता का परिणाम है
00:42:04सच्ची आस्थिता आस्था से प्यदा होती
00:42:09आस्था का अर्थ है जैसा तुम समझते हो वैसा नहीं
00:42:15तुम समझते हो आस्था का आर्थ है विस्वास, नहीं आस्था का आर्थ विस्वास नहीं, आस्था का आर्थ है अनुभव, विस्वास तो दूसरे देते हैं, आस्था वो है जो तुम्हारे दीतर, तुम्हारी स्वाभावित्ता से पैदा होती है, प्रेम सीखो, नियम भूल
00:42:45लेकिन जिसने जोखम न उठाई उसने कुछ पाया दिने इसलिए तो लोग बिना पाय रह जाते
00:42:53पूछा है इस विराट अस्तित्म में ना कुछ हूँ यह अपरी तत स्विकार करने में भै पकड़ता है पकड़ने तो भै
00:43:03भै की मौजूदगी रहने दो भै से कहो तू रह लेकिन हम जुकते तुम भै को एक किनारे रखो
00:43:18मैं जानता हूँ कि भै को एकड़म मिटाना सकोगे लेकिन एक किनारे रख सकते हूँ
00:43:24भै के रह पकले हूँ भह की सुनना जरूरी नहीं है
00:43:32तुम सुनते हो सुष्णार करते हो मान लेते हो इसलिए भै मालिक हो जाता है
00:43:38भै से को ठीक तरी बात सुनली फिर भी जुक के देखना है
00:43:47तू कहता है जोखिम होगी लेकिन जोखिम उठा के देखनी तू कहता है मिट जाओगे सही
00:44:05रह के देख लिया अब मिट के देखना है रह रह के कुछ न पाया है अब ये आयाम भी खोज ले मिटने का
00:44:14कोई भैको दबाने की ज़रूवत नहीं है ध्यान रखना दबाया हुआ भै तो फिर फिर उभरेगा न भैको पूरा सुईकार कर लो कि ठीक हो
00:44:27माना तुम्हारी बात में भी बल है तुम्हारे तर्क से कोई इंकार नहीं लेकिन तुम्हारे साथ रह के इतने दिन देख लिया और जीवन का कोई अनुभव न हुआ अब कुछ और भी कर लेने तो
00:44:43तर्क उठेंगे मन में उनसे को ठीक है तुम्हारी बात जैस्ति थी इसलिए तो इतने दिन तक तुम्हारा संग सांत रा रहा इतने दिन तक तुम्हें ओड़ा लेकिन कुछ पाया ने हाथ खाली हिर्दे कोरा है आत्मा रिक्त है अब बहुत हुआ अब तुमसे बिप्री�
00:45:13दिन गये उस अब दिशा में जाते मन गबडाता है पैर कपते मन चाहता है जाने माने रास्ते पर चलो कहां जंगल में जा रहा हो भी आवान में बटक जाओगे भीर जहां चलती है वहीं चलो कम सकम संगीस आति हैं Bhaid है तो राहत है अकली नहीं पर एक ना एक दिन भीर के
00:45:43पगडंडी की राह लेनी ही पड़ती है, परमात्मा तक कोई राजपत नहीं जाता, बस पगडंडियां जाती है, कोई राजपत परमात्मा तक नहीं जाता, अन्था समाज परमात्मा तक पहुच जाए, व्यक्ती ही पहुचते हैं समाज कभी ने, पगडंडियां, पगडंड
00:46:13तुम्हारे चलने से ही बनती
00:46:15जितना तुम चलते हो उतनी ही निर्मित होती
00:46:20ये राह ऐसी है कि तयार नहीं
00:46:26चलने से तयार होती
00:46:28और बड़ा सुन्दर है ये तक कि
00:46:31नहीं तो आदमी एक परतंता हो जाया
00:46:35राह तयार है उस पे तुम्हें चल जाना है
00:46:37तब तो तुम रेल गारियों के डब्मों जैसे हो जाओ
00:46:41लोहे की पट्रियों पर दोड़ते रहो
00:46:44फिर तुम्हारे जीवन में गंगा की स्वतनता नहो
00:46:48फिर वो मौज न रह जाए
00:46:51जो अपनी ही खोस से आती
00:46:54गंगा सागर पहुंचती
00:46:57लोहे की पट्रियों पर नहीं
00:47:00चलती है
00:47:02चल चल के अपने राह बनाती मार्क बनाती
00:47:06अंजान की खोच पर
00:47:09सागर है भी आगे इसका भी क्या पक्का पता है
00:47:14तो भै स्वाभावे के
00:47:17लेकिन भै के साथ रहके हम बहुत दिन देख लिए
00:47:21अब भै को कहो सुनी तेरी बहुत
00:47:25अब हमे कुछ और भी करने दे
00:47:28रहने दो भै को एक किनारे
00:47:30तुम चलो
00:47:31कपते हुए पैरों से सही
00:47:34पगडंडी पर उत्रो
00:47:36दरते हुए धड़कते हुए हिरदे से सही
00:47:38भील को छोडो
00:47:40घबाहट होगी
00:47:43लौट लौट जाने का मन होगा
00:47:45कोई चिंदा नहीं
00:47:49कभी लौट जाने का मन हो
00:47:53कभी घबडा हट हो
00:47:56तो इतना है याद रखना
00:48:00कि भै की और मन की
00:48:03मान के बहुत दिन चले थे
00:48:05कहीं पहुँचे ना थे
00:48:07नयव को एक आउसर दो
00:48:12जिस दिन तुम नयव को आउसर देते हो
00:48:15उसी दिन तुम परमात्मा को आउसर देते हो
00:48:17जब तक तुम पुराने को दोराते हो
00:48:21लिक को पीटते हो
00:48:22लकीर के फकीर हो
00:48:24तब तक तुम समाज के हिस्से होते हो
00:48:27भील के हिस्से होते हो
00:48:28व्यक्ति बनो
00:48:30अकेले का साहस चुटाओ
00:48:34और सबसे बड़ा साहस यही है
00:48:37इस तथ्यो को स्वीकार कर लेना
00:48:39कि मैं इस विराठ का अंसू
00:48:41अलग थलग नहीं
00:48:44द्वीप नहीं
00:48:47इस पूरे विराठ का एक अंसू
00:48:50मैं नहीं हूँ
00:48:51अस्तित्व है
00:48:53यही तो भक्ती की
00:48:56सारी की सारी ब्यवस्था है
00:48:59कि भक्त खो जाए बगवान में
00:49:02कि भगवान खो जाए बग्त में
00:49:05कि एक ही बचे
00:49:06दो न रह जाए
00:49:07तीसरा प्रस्त
00:49:16आप से मिलकर भी यदि हमारा उधार न हुआ
00:49:21तब तो सायद असंभव ही है
00:49:24कम से कम मुझ निरी पर तो रहम खाईए
00:49:28न तो मुझसे ध्यान सत्ता है न भक्ती
00:49:32भक्ती की लहरियां आती है अविस पर बहुत जीनी
00:49:37और वो भी कभी कभी और संसार का भेंकर तूफान तो सदा हावी है
00:49:42ध्यान साधना होता है भक्ती साधनी नहीं होती
00:49:51भक्ती की जो छोटी छोटी छोटी लहरियां आ रही हैं
00:49:58उन में डूबो उन में रसलो तुम्हारे डूबने से लहरें बड़ी होने लगी दूर किनारें पर मत बैठे रहो
00:50:08अन्था लहरें आएंगी और खो जाएंगी और तुम अच्छूते रह जाओ उत्रो
00:50:15लहरों को तुम्हारे तन प्रान पर फैलने दो
00:50:19अगर छोटी छोटी लहरें आ रही हैं तो भरोसा रखो लहरों में सागर ही आया है
00:50:27छोटी से छोटी लहर में विराट से विराट सागर छिपा है
00:50:37ध्यान साधना पड़ता है ध्यान साधना है बक्ती साधना नहीं है उपासना है भेट समझ लो
00:50:47साधनाकार थे तुम्हें कुछ करना है
00:50:50उपासनाकार थे तुम्हें सिर्फ परमात्मा को मौका देना है
00:50:54साधना में तुम्हें चेश्ठा करनी पड़ती है
00:50:59उपासना में तुम बे सहरा हो के अपने को परमात्मा पे छोड़ देते हो
00:51:03तुम कहते हो अब जो तेरी मर्शी, अब तु जैसे रखे, अब तु जो करवाए, डुबाए, तो वही किनारा, अब मैं नहीं हूँ, भक्ती साधना नहीं पड़ती,
00:51:22साधने में तो तुम बने रहते हो, उपासना में तुम खो जाते हो, तुम जैसे पास आते हो, उपासना सब्दकारत है परमातना के पास आना, उपासन उसके पास पैठना,
00:51:39बस बैठने ही काफी है
00:51:45तुम उसे मौका दो तुम बैठ जाओ
00:51:50उसके पास
00:51:52उस पर छोड़ कर
00:51:56और उसे मौका दो
00:51:58बिल्कुल ठीक हो रहा है
00:52:02भक्ती की लहरियां आती है अवस पर बहुत जीनी और वह भी कभी कभी
00:52:06इसे भी सौभाग के समझो की आती है
00:52:09बस उन लहरों को ही पकड़ो उन में डूबो
00:52:17एक धागा भी हाथ में आ जाए है तो बस काफी
00:52:20इसलिए तो भक्ती के सास्त्र को भक्ती सुत्र का है
00:52:27योग के सास्त्र को योग सुत्र का धागा
00:52:30सुत्र यानि धागा
00:52:32ये पूरा सास्त्र नहीं है पर सूत्र है पर सूत्र हाथ में पकड़ आ गया तो बात खत्म
00:52:39उसी सूत्र के सहारे चलते चलते तो एक किरन पकड़ लो सूरज की तो सूरज तक पहुचने के लिए सहारा मिल गया
00:52:48उसी किरन के सहारे चलते जाना
00:52:51तो उसके सुरुत तक पहुंचाओगे जहां से किरन आती
00:52:55मगर हमारा मन बड़ा लोबी
00:53:00वो कहता है कभी कभी
00:53:02कभी कभी आती ही ये भी कोई कम सो भागे
00:53:05एक बार भी जीवन में लहर आ जाए
00:53:08और तुम अगर होश्यार हो
00:53:11तुम अगर जरा समझदार हो
00:53:13तो तुम उस एक ही लहर के सारे उसके सागर को पा लोगे
00:53:18कभी कभी आती ही जरूर से जादा आ रही
00:53:21तुम्हारी पात्रता क्या है
00:53:24योगता क्या है
00:53:26कमाई क्या है
00:53:29कुछ भी नहीं
00:53:31उसकी अनुकमपा से आती होंगी
00:53:34प्रसास सौरू पाती होंगी
00:53:37धन्यवाद दो सिकायत मत करो
00:53:42सिकायत करोगे तो जो लहरे आती हैं
00:53:46वो भी धीरे धीरे खो जाएंगी
00:53:47क्योंकि सिकायती चित्टे के पास
00:53:50उपासना असंभव है
00:53:53जितनी ज़्यादा तुम्हारी सिकायत होगी
00:53:56उतना ही परमात्मा से फासला हो जाएका
00:53:58बिन सिकायत उसके पास बैश रहो
00:54:01धन्यवाद दो
00:54:03मैंने सुना है
00:54:06मुसल्मान बासा हुआ महमूद
00:54:09उसका एक नौकर था
00:54:11बड़ा प्यारा था
00:54:13इतना उससे प्रेम था उस नौकर के
00:54:17और उस नौकर की भक्ती भाव से
00:54:20उसके अनन्य समरपन से
00:54:25कि महमूद उसे अपने कमरे में ही सुलाता था
00:54:29उस पर ही एक बरोसा था उसको
00:54:31दोनों एक दिन सिकार करके लौत दे थे
00:54:35राह भटक गए भूँक लगी
00:54:38एक ब्रक्ष के नीचे एक ब्रक्ष के नीचे दोनों खड़े थे
00:54:42एक फल लगा था अपरचित अंजान महबूद ने तोड़ा
00:54:45जैसी उसकी आदत थी
00:54:48चाकू निकाल के उसने एक टुकड़ा काटके अपने नौकर को दिया
00:54:55जो वो हमिसाद देता था
00:54:58पहले उससे देता था फिर खुद खाता था
00:55:01नौकर ने खाया बड़े अहभाव से कहा की एक कली और एक कली और दे दी उसने फिर का एक कली और
00:55:12तो तीन हिस्से तो वो ले चुका एक हिस्सा ही बचा महमूद ने कहा वे एक मुझे छोड़ पर उसने कहा की नहीं मालिक
00:55:20ये फल तो पूरा ही मैं खाऊँगा
00:55:24महमूद को भी महमूद को भी जिग्यासा बढ़ी कि इतना मदूर फल है
00:55:30ऐसा इसने कभी आगरे नहीं किया
00:55:32तो वो छीना जपट की होने लगी
00:55:35तेकिन नौकर ने छीनी लिया उसके हांस से
00:55:38उसने का रुक अभी जरुष से ज़ादा हो गई बात
00:55:42तीन हिस्से तू खा चुका है
00:55:44एक ही फल है ब्रक्ष पर
00:55:46मैं भी भूका हूँ
00:55:48और मेरे मून में भी जिग्यासा उटकी
00:55:51इतना तो तूने कभी किसी चीज के लिए मांग नहीं की
00:55:54ये मुझे दे दे वापिस
00:56:08उसने का पागल ये तो जहर है तूने कहा क्यों नहीं
00:56:12तो उसने कहा कि जिन हाथों से इसने स्वादिष्ट फल मिले
00:56:15उन हाथों से एक कड़वे फल की क्या सिकायत
00:56:20सिकायत दूर ले जाएगी
00:56:27धन्यवाद पास लायेगा
00:56:30थोड़ा सोचो
00:56:32उस दिन वो नौकर महमुद के हिरदय के जितने करीब आ गया है
00:56:36महमुद रोने लगा
00:56:39वो तो बिल्कुल जहर था फल
00:56:42वो तो मुँ में ले जाने योग ना था
00:56:45और उसने इतने अहोभाव से इतनी प्रसनता से उसे सुईकार किया
00:56:49चीना जबती की
00:56:50वो नहीं चाहता था कि महमुद चखे
00:56:53क्योंकि चखेगा तो महमुद को पता चट जायागा
00:56:56कि फल कड़वा था
00:56:58यह तो कहने का ही एक धंग हो जाएगा
00:57:01कि फल कड़वा है
00:57:02ना कहा लेकिन कह दिया
00:57:04ये तो सिकायत हो जाएगी इसलिए छीन जपटती
00:57:07जिन हाथों से इतने मदरफल मिले
00:57:11उस हाथ से एक कड़वे फल की क्या चर्चा करने
00:57:14वो बात ही उठाने की नहीं
00:57:17परमाप्मा ने इतना दिया है
00:57:20कि जो सिकायत करता है
00:57:23वो अंधा है
00:57:25थोड़ी लहरें आती
00:57:28उन लहरों में डूबो और लहरें आएंगी
00:57:35धन्यवाद अनुग्रह का भाव
00:57:40बड़ी लहरें आएंगी
00:57:44एक दिन सागर का सागर तुम्हें उतराएगा
00:57:47एक दिन तुम्हें बहा के ले जाएगा
00:57:50सब कूल किनारे तूट जाएगे
00:57:54लेकिन सुत्र यही है
00:57:57कि तुम उसके प्रसाद को पहचानो
00:58:01और अनुग्रह के भाव को बढ़ाते चले जाओ
00:58:05होता अकसर ऐसा है
00:58:10कि जो तुम्हें मिलता है तुम उसके प्रती अंध्य हो जाते हो
00:58:17तुम उसे स्वीकारी कर लेते हो कि ठीक है यही तुम मिलते ही है
00:58:22और चाहिए अकसर ऐसा होता है जितना ज़्यादा तुम्हें मिल जाता है
00:58:30उतने ही तुम धरिद्र हो जाते हो
00:58:32क्योंकि उसको तुम स्वीकारी कर लेते हो उसकी तुम बात ही भूल जाते हो जो मिल गया
00:58:39एक मनोविज्ञान साला में बंदरों पर कुछ प्रियोग किया जा रहा था
00:58:48एक कट घरे में दस बंदर रखे गए थे जिनका रोज नहलाना दुलाना होता था
00:58:59ठीक बोजन मिलता था बड़ी उस कट घरे में सफाई रखी गई थी एक मक्ही न थी
00:59:06दूसरे कट घरे में दस उनहीं के साथी बंदर थे उनको नहलाया दुलाया न जाता था
00:59:14उन तो गंदगी खटी हो गई थी जू पढ़ गए थे मक्हियां बन बनाती रहती थी
00:59:20सफाई का कोई इनसाम नहीं किया गया था ये तो प्रियोप था एक
00:59:24तीन मेहनों में मनोवेग्यान को ने जो निसकर्स ने काला वो ये था
00:59:29कि वो जो गंदे बंदर थे जिन पर मक्हियां जूमती रहती हैं और जिनके सरीर पर जूम पढ़ गई थी
00:59:35और जिनको नहलाया दुलाया ना गया था वो ज्यादा सांथ और ज्यादा प्रसंथ और जिनको नहलाया दुलाया जाता था ठीक बोजन दिया जाता था वक्त पे दिया जाता था और सब तरह की सास समाल रखी गई थी
00:59:51एक मक्खी नहीं जानी दी वो बड़े परिशान
00:59:54फिर यही प्रियोग कुत्तों पर भी दोहराया गया और यही परिणाम पाया गया
01:00:02तो मुनविग्यान को ने ये निसकर्स निकाला
01:00:07कि जब तुम्हारी जिनकी में बहुत परिशानी होती है
01:00:11तब तुम ज़्यादा सांथ होते हो
01:00:13तुम परिशानी में उल्जे होते हो असांथ होने की भी तुम्हें सुविधा नहीं होती
01:00:19जैसे जैसे तुम्हारे पास सुविधा होती जाती है वैसे वैसे तुम असांथ होते जाते है
01:00:26कि सुगिदा होती है, व्यस्तता नहीं होती, उल्जाओ नहीं होता, करो भी तो करो क्या, तो तुम सिकायतों में बढ़ जाते हो, ये मेरा अनुभव है, कि जिनके जीवन में भी ध्यान की थोड़ी सी सांती आनी सुरू होती है, वो और लोब से भर जाते हैं, जिनको भक्ती क
01:00:56काफी है, उन्हें सुआदी नहीं मिला तो लोब कहां से लगे, तुम गोर करो गरीब आतनी को तुम जादा सांत पाओगे, अमीर आतनी की बजाए, कारण साफ है वही जो बंदरों के कटकरे में हुआ, अमीर को सब मिल रहा है, अब वो करे क्या, सिकायत ही करता है, जो बाह
01:01:26अमेरी गरीबी के संबन में भी सच, अगर तुमें जलके मिल रही है थोड़ी, जीनी सही, जीनी भी तुम कहते हो, वो भी तुम्हारा सिकायती चित है जो उन्हें जीनी बता रहा है, कभी कभी मिलती है, चलो कभी कभी सही, कभी कभी भी तुम कहते हो, वो भी तुम्हारा स
01:01:56कर लिया है वह तुजए से तुम मालिक थे मिलना भी चाहिए था तुम अधिकारी थे उसके बांकी जो नहीं मिल रहा है उसकी शिकायत तु तो तुमने भक्ति का राज नहीं समझा तुम्हें उपासना की कला ना आई जो नहीं मिलता हूँ स्की बात ही मत उठाओ वाद उठा
01:02:26उसकी महिमा गाओ, उसके गीत कुन गुनाओ, और तुम जल्दी ही पाओगे और द्वार खुलने लगे, तुम जल्दी ही पाओगे और नई हवाओं आने लगे, और नई जलके मिलने लगे,
01:02:40जैसे जैसे आदमी को मिलना सुरू होता है कुछ
01:02:49वैसे वैसे उसके पैर सितल होने लगते
01:02:53ये भी मन की प्रकरती समझ लेनी ज़रूरी
01:02:56तुमने कभी ख्याल किया अगर तुम कहीं यात्रा पर गए हो पद यात्रा पर
01:03:00किसी तिर्थ यात्रा पर
01:03:03जैसे जैसे मंदर गरीब आने लगता है
01:03:06वैसे वैसे पैर सितल होने लगते
01:03:09अक्सर ऐसा है
01:03:11अक्सर तुमने देखा होगा
01:03:14या अनभो भी किया होगा
01:03:15कि ठेट मंदर के सामने जाके यात्री सिलियों पर बैठ जाता है
01:03:19अब जादा दूर में हैं मामला
01:03:22अब पांस सिड़ियां दस सिड़ियां चड़नी है और मंदिर
01:03:25दस मील चलाया
01:03:27पहार चलाया
01:03:30अभी बैठा नहीं बीच में कही
01:03:32ठीक मंदर के सामने आके बैठ जाता है
01:03:35लगता है आ ही गए
01:03:39लेकिन तुम मंदर की सिड़ियों पर बैठो
01:03:43या हजार मिल दूर मंदिर से बैठो
01:03:45फर्क क्या है
01:03:46सीड़ियों पर जो है वो भी मंदिर के बाहर है
01:03:50हजार मिल दूर जो है वो भी मंदिर के बाहर है
01:03:54और परमात्मा का मंदिर कुछ ऐसा है
01:03:58कि तुम बैठे की चूके
01:03:59ये कोई जड़ पत्थर का मंदिर नहीं
01:04:02तुम सिड़ियों पर बैठ रहे तो मंदिर भी वहां रुका रहेगा
01:04:04ये तो छैतन्य मंदिर है
01:04:06तुम बैठे की चुके
01:04:08तुम बैठे की मंदिर दूर गया
01:04:10तुम रुके
01:04:12की खोया
01:04:13सामने मंजल है
01:04:16और आहिस्ता उठते हैं कदम
01:04:18पास आकर
01:04:20हो रहे हैं दूर मंजल से हम
01:04:22सावधान रहना
01:04:26जब ध्यान की लहरें उठने लगे
01:04:29भक्ती की उमंगाने लगे
01:04:32थोड़ी रसधार बहे
01:04:35थोड़ी मस्ती चाहे
01:04:38तो दो खत्रे
01:04:40एक खत्रा ये है
01:04:43जो इस प्रस्ण करने वाले ने पूछा है
01:04:46वो खत्रा ये है कि तुम को ये तो कुछ भी नहीं
01:04:49और चाहिए
01:04:50तो भी तुम दूर हो जाओगे
01:04:52दूसरा खत्रा ये है
01:04:54कि तुम को बस हो गया
01:04:55पहुँच गये
01:04:58और बैठ जाओ
01:04:59तो भी तुम खो गये
01:05:02फिर करना क्या है
01:05:04चलते जाना है
01:05:07और सिकायत नहीं करनी
01:05:09चलते जाना है और अहो भाव से भरे रहना है
01:05:12चलते जाना है
01:05:14और धन्यवाद देते जाना है
01:05:20ओंट पर गीत रहे
01:05:21धन्यवाद कर और पैर
01:05:27पैर रुके ना
01:05:29धन्यवाद तुम्हारा रुकावट ना बन जाए
01:05:32अक्सर ऐसा होता है कि सिकायती चलते और धन्यवादी बैठ जाते
01:05:40दोनों खत्रे
01:05:42पहुँचता वही है
01:05:48जिसने उस गहरे संयोग को साथ लिया धन्यवादी और चलता है
01:05:54बड़ा गहरा संतुलन है लेकिन अगर होस रखो तो सद चाता है
01:06:02चौथा प्रस्ण
01:06:12कल के सुत्र में कहा गया कि लौकिक और बैदिक कर्मों के त्यांक को निरोध कहते हैं
01:06:20और निरोध भक्ती का स्वभाव है
01:06:22और फिर यह भी कहा गया कि भक्त को सास्त्रोक्त कर्म विधि पूर्वक करते रहना चाहिए
01:06:28कि रप्या इस विरोध को इसपश्ट करें
01:06:30विरोध नहीं है
01:06:32दिखाई पड़ता है जो भी पढ़ेगा तक छुन दिखाई पढ़ेगा
01:06:39कि पहले तो कहा कि लोकिक और वैदिक कर्म सबका त्याग हो जाता है
01:06:44निरोध हो जाता है
01:06:46छूट जाते हैं
01:06:48और फिर कहा करते रहना चाहिए
01:06:50विरोध दिखाई पढ़ता है विरोध है नहीं
01:06:55जान के ही दूसरा सुत्र रखा गया है
01:06:58कि जब तुम्हारे जीवन से लोकिक और वैदिक
01:07:01इस लोक के और परलोक के
01:07:04सारी आकांच्छाय और सारे कर्म छूट जाते हैं
01:07:08तो कहीं ऐसा नहो कि तुम कर्मों को छोड़ ही दो
01:07:11कर्म तो छूट जाते हैं लेकिन तुम करते रहना
01:07:15इसका अर्थ हुआ कि अब तक तुमने करता की तरह किया था
01:07:19अब अभीनिता की तरह करना
01:07:20फिर तक्ष्ण विरोध खो जाता है
01:07:24अब तक तुमने किया था कि मैं करता हूँ
01:07:27अब तुम अभीनिता की तरह करना
01:07:30क्योंकि जिस विराट समूर के तुम हिस्से हो
01:07:34वो मानता है कि ये करमोचे थे
01:07:39इनका अभी ने करना है
01:07:42तुम्हारे लिए इनका कोई मूले नहीं है
01:07:44ऐसा ही समझो
01:07:45जब सहर में आते हो तो बाएं चलने लगते हो
01:07:48जंगल में जाके फिर बाएं दाएं रखका है
01:07:50हिसाब रखने की कोई ज़रुवत नहीं
01:07:51जंगल में तुम अकेले हो
01:07:54बाएं चलो दाएं चलो बीच में चलो
01:07:57जैसा चलना हो चलो क्योंकि
01:07:59वहां कोई पुलिस वाला नहीं खड़ा है
01:08:01रास्ते पे कोई तक्तिया नहीं लगी है
01:08:03वहां कोई और है ही नहीं तुम्हारे सिवा है
01:08:05अगर जंगल में भी जाके
01:08:07तुम बाएं ही बाएं चलो तो तुम पागल हो
01:08:09फिर तुम्हारा दमाग खराब है
01:08:11क्योंकि बाएं चलने का कोई संबंध
01:08:15चलने से नहीं है
01:08:16बाएं चलने का संबंध बीर में चलने से
01:08:18जब अकेले हो तब मुख्त हो
01:08:22तो जो व्यक्ति
01:08:24भक्त की दसा को उपलब्ध हुआ
01:08:26अपने भीतर, अपने एकांत में
01:08:28तो सबी नीमों के बाहर हो जाता है
01:08:30वहां न तो कोई सांस्त रहे
01:08:33न कोई नीम है, न कोई रीत
01:08:36न कुछ पाना है
01:08:38न कहीं जाना है
01:08:40वो तो अपने भीतर परम आवस्था को उपलब्थ हो गया है
01:08:45वो तो परमात्मा के साथ एक रस हो गया है
01:08:50भीतर जहां सब एकान थे
01:08:53वहां तो अद्वैत हो गया है
01:08:55वहां तो अननिता सब गई
01:08:58लेकिन बाहर जब वो रहा पर जायेगा
01:09:01तब तब बाएं चलेगा
01:09:04कहीं ऐसा न हो
01:09:07कि जो तुमने भीतर अनभव किया
01:09:10तुम उसे बाहर भी थोपने की चेश्ठा में न पढ़ जाओ
01:09:13इसी लिए
01:09:15इस पश्ट सूत्र पिछे दिया है
01:09:19करने चाहिए
01:09:21उस व्यक्ति को
01:09:23सास्त्रो कर्म विधि पूर्वक करने चाहिए
01:09:26जान के होस से
01:09:29उनकी नीमों का पालन करना चाहिए
01:09:33वो अभी ने होंगे अब
01:09:36उनकी कोई अर्थवत्ता नहीं है
01:09:42लेकिन अगर तुम अंधों के बीच रहते हो
01:09:46तो अंधों के नियम मानो
01:09:48अगर तुम अग्यानियों के बीच रहते हो
01:09:55तो अग्यानियों के नियम मानो
01:09:57इस थोड़ा समझने जैसा है भारत में एक बड़ी प्राचीन धारना है कि जब व्यक्ति ग्यान को उपलप्थ हो जाए तो वो चेश्ठा पुर्वक नीमों को वैसा ही मानता रहे जैसा पहले मानता था जब ग्यान को उपलप्थ नहुआ था
01:10:19सैद यही कारण कि भारत में महावीर, बुद्ध, पतंजली, नारत, कबीर किसी को भी जीसस जैसी सूली नहीं लगानी पड़ी
01:10:34सूली पर नहीं रटकाना पड़ा और नहीं सुक्राच जैसा जहर पिला के मारना पड़ा
01:10:38इसके पीछे बहुत से कारणों में एक बुनियादी कारण यह भी है कि बुद्ध ने जो भीतर पाया उसे जबरजस्ती उन लोगों पर नहीं थोपा जो अभी उसको समझ भी ना सकते थे
01:10:55भीड से अकारण संघर्ष ना लिया भीड को फुसलाया समझाया जगानी की जेश्था की उपर उठाने के उपाय की लेकिन अकारण संघर्ष ना लिया
01:11:11जीसस सीदे संगर्ष में आ गए। सहब जीसस के मुलक में यहुदियों के समाज में ऐसा कोई सूत्र नहीं दा।
01:11:21ऐसे किसी सुत्र को अब तक मैं नहीं देख पाया हूँ
01:11:24यहुदियों के किसी भी सास्त्रू
01:11:26जिसमें ये कहा गया हो
01:11:29कि परमग्यान को उप्लब्ध व्यक्ति
01:11:31समाज के नीमों को मान कर चले
01:11:33टक्राहट स्वाभाविक हो गई
01:11:38और जब टक्राहट होगी तो एक बात पक्की है
01:11:42कि ज्यानी तो एक है अज्यानी करोड है
01:11:45भील उनकी है
01:11:46वो ज्यानी को मार डालेंगे
01:11:49ज्यानी अज्यानियों को तो न उठा पाएगा
01:11:55अज्यानी ज्यानी को मिटा देंगे
01:11:58तो भील को मान कर चलना
01:12:03सिर्फ अपनी सुरक्षा ही नहीं है
01:12:07क्योंकि ग्यानी को अपनी सुरक्षा की क्या चिंता है
01:12:10भीड की मान कर चलना भीड पर करूना है
01:12:14अनिता भीड तुम्हारे विप्रित हो जाएगी
01:12:17तुम उसे फुसला भी ना सकोगे, राजी भी ना कर सकोगे
01:12:20तुम उसे लिसा भी न दे सकोगे
01:12:23ऐसा समझो कि तुम मेरे साथ हो
01:12:27तुम्हारी 99 बाते मैं मान लेता हूँ
01:12:30तुम भी मेरी एक बात मानने को तैयार हो सकते हो
01:12:33हलाकि मेरी एक तुम्हें बिल्कुल बर्बाद कर देगी
01:12:36तुम जहाँ वहां से उखाड़ देगी
01:12:38और तुम्हारी 99 मेरा कुछ बिगाडने वादी नहीं
01:12:41तुम्हारी 99 मेरे लिए अभिने होंगी
01:12:47मेरी एक तुम्हारे लिए जीवन क्रामती हो जाएगी
01:12:51आखरी प्रस्ट
01:13:01जिसे भक्ती में अननेता कहा है
01:13:04क्या वही दर्सन का अद्वेत नहीं
01:13:07अर्थ तो वही है
01:13:09लेकिन स्वाद में बड़ा भेद
01:13:16अननेता में रस है
01:13:19अद्वेत बड़ा रूखा सूखा सब्द है
01:13:22अद्वेत तर्क का सब्द है अननेता प्रेम का
01:13:28अननेता कहती है एक हो गए
01:13:36अद्वेत कहता है दो न रहे
01:13:39बात तो वह एक ही कहते
01:13:42लेकिन दो न रहे इसमें बड़ा तर्क है
01:13:47अद्वेत ये भी नहीं कहता है कि एक हो गए
01:13:51क्योंकि एक कहने से दो का ख्याल आ सकता है
01:13:54एक में दो का ख्याल चिपा ही है
01:13:58इसलिए कान को सीधना पकड़के तर्क सास्त्र हाथ गुमा के उल्टा पकड़ता है
01:14:06दो न रहे इसलिए अद्वेत
01:14:10क्या हुआ इसके संबंद में बात नहीं कहीं जा रही है
01:14:16अनन्यता सीधी खबर क्या हुआ
01:14:21अद्वेत बाहर बाहर से खबर है
01:14:26अद्वेत ऐसा है जैसा कोई तुम से पूछे कि ब्रेम क्या और तुम कहो ग्रणा नहीं
01:14:33निसेद से कहा जा रहा है
01:14:38माना की प्रेम घ्रना नहीं है
01:14:41ये सच
01:14:42लेकिन प्रेम घ्रना के नहोने से बहुत ज़्यादा है
01:14:45अननिता बड़ा प्यारा सब थे
01:14:52दूसरा दूसरा न रहा अननिकार थे
01:14:57अन्य अन्य न रहा अनन्य हो गया
01:15:00दूसरा दूसरा न रहा
01:15:03एक हो गए
01:15:04अद्वेत से ज़्यादा है ये बात
01:15:09इसमें थोड़ा रस है जो अद्वेत में नहीं
01:15:13अद्वेत गनित और तरक का सब्द है
01:15:15अननिता प्रेम और कावे का
01:15:17अद्वेत पर किताब लिखनी हो तो रूखी सूखी होगी
01:15:22अननिता पर किताब लिखनी हो
01:15:26तो काव्य होगा, तो गीत होगा
01:15:29अननिता प्रगट करनी हो तो नाच के प्रगट हो सकती
01:15:34जिसे नर्त से एक हो जाता है, ऐसा अननिता प्रगट करनी हो
01:15:43तो मस्ती से प्रगट होगी
01:15:47अद्वैत प्रगट करना हो
01:15:51तो मस्ती की कोई जरुवत नहीं
01:15:54नत्त की जरुवत ही नहीं नहीं है
01:15:56नत्त को बीच मिलाने में बाधा पड़ेगी
01:15:59सीधे तर्क के नियम काफी है
01:16:03इसलिए वेदान्त के सास्त्र बड़े रूखे सूखे
01:16:10मरुस्थल जैसे
01:16:13वो भी परमात्मा के ही सास्त्र है
01:16:16क्योंकि मरुस्थल भी परमादमा के ही है
01:16:19लेकिन वहां हर्याली नहीं उकती
01:16:22वहां पूल नहीं लगते यह बक्षिओं का कोई कल रहो नहीं होता
01:16:26जरूं का कलकल नाथ वहाँ नहीं है
01:16:30रहा से गुजरोगे
01:16:33तो मरुस्थल में भी खजूर के पैड़ मिल जाते हैं
01:16:36वो भी Vydant में नमिलेंगे
01:16:38इसलिए Vydant ने बड़ा
01:16:45रुखा सूखा सास्त्र दिया है
01:16:47इसलिए Vydant तर्क करते रहे
01:16:50खंडन मंढन करते रहे
01:16:52सास्तरात करते रहे
01:16:54भक्त नाचा
01:16:56उतरह समय उसने इसमें नगमाए
01:16:58चैतन ने नाचे
01:17:00ले लिया तंबूरा
01:17:02गाउं गाउं नाचे, नहीं किया कोई बिवाद, मीरा नाची, पद घुंगरू बांध नाची, कोई बिवाद नहीं किया,
01:17:17बिवाद में कहाँ वो स्वाद, जो पद घुंगरूं में, बिवाद में कहाँ वो स्वाद, जो वीना की जंकार में, और जब इतने मधर उपाय उपलब्धों, तो क्या तर्क जैसा रूखा सुखा उपाय खोजना,
01:17:33मेरा बर्सी, जिसमें देखा वो डूबा, जो पास आया भूला, विस्मर्त किया अपरें को, एक डूपकी लगाई, कुछ लेके गया,
01:17:51छेतने के जीवन में तो दोनों घटना हैं, क्योंकि पहले वो बड़े तर्क सास्त्री थे, न्यायविद थे,
01:17:57और एक ही काम था उनके जीवन, बिवाद, उन्जे सब बिवादी नहीं था, बंगाल में उनकी बड़ी ख्याती थी,
01:18:14बड़े बड़े पंडितों को उन्होंने हराया, लेकिन धीरे धीरे बास समच में आई,
01:18:24पंडित हार जाते हैं, वो जीट जाते हैं, लेकिन बीतर कोई रस्धार नहीं बहरेगा,
01:18:33इस जीट को इखटा करके भी क्या करेंगे, ऐसे जीवन बीता जाता है,
01:18:38ये प्रमान पत्र इखटे करके क्या होगा कि कितने लोगों को जीत लिया,
01:18:43और कितने लोगों को तर्क में पराजित किया,
01:18:48ये तर्क के जाल से क्या होगा, एक दिन होस आया कि तो समय को गवाना है,
01:18:54फिर उन्होंने सब तर्क छोड़ दिया,
01:18:56सांस्त नदी में डुबा दी है,
01:19:00ले लिया मंजीरा नाचने लगे,
01:19:06तब उन्होंने किसी और ढंग से लोगों को जीता,
01:19:11तर्क से नहीं जीता, प्रेम से जीता,
01:19:15तब उनके चान और तरफ एक,
01:19:18एक अलग ही माहौल चलने लग,
01:19:20उनकी हवा में एक और गंधा गयी,
01:19:26जहां उनके पैर पड़े,
01:19:28वहीं विजई यात्रा हुई,
01:19:32जिसनों उन्हें देखा, वही हारा,
01:19:34लेकिन इस हार में कोई हराया ना गया,
01:19:38इस हार में कोई आहंगार न था जीतने वाले का,
01:19:41इस हार में हारने वाले को पीड़ानों हुई
01:19:45ये प्रेम की हार थी जो की जीतने का एक ढंग है
01:19:48प्रेम की हार में कोई हारता ही नहीं दोनों जीतते
01:19:53प्रेम में जीते तो जीत, हारे तो जीत
01:19:59वहां हार जीत में भेद नहीं
01:20:02अमने ता बड़ा मधुर सब थे
01:20:06अद्वैत इल्कुल रूखा सूखा
01:20:11अनिंता ऐसा है जैसे हरा फल रस भरा
01:20:16अद्वैत ऐसा है जैसे सूखा फल
01:20:22जुर्यें पड़ा
01:20:25सब रस खो गए
01:20:27गुठली ही गुठली है अद्वैत
01:20:31पर अद्वैत की भासा एहंकार को जमती
01:20:39क्योंकि एहंकार को गवाने की सर्थ नहीं है वहाँ
01:20:43इसलिए तुम देखोगे अद्वैत वादी सन्यासी है भारत में
01:20:49उनको तुम बड़ा एहमन ने पाओगे
01:20:52बड़े एहंकार से बड़ा हुआ पाओगे
01:20:53क्योंकि सारी पकड़ तरक्की है तुम भक्त की कमनी ता उनमे न पाओगे
01:21:01भक्त की लोच भक्त का सौंदरी है
01:21:06वहां उसका अभाव होगा भारत ने अद्वैत के नाम पर बहुत खोया
01:21:16भारत अकड़ा अद्वैत के कार एहंकारी हुआ दंब बढ़ा
01:21:28सांस्त्र बढ़े तरक जाल पहला लेकिन भारत का हिर्द धीर धीर रस से सूनने होता चला गया
01:21:38तो ऐसा कुछ हो गया जैसे की उत्तप्त गर्मी के दिन आते हैं सूरज तपता है और परत्वी सूख जाती और दरारें बढ़ जाती
01:21:48भक्ती की वर्सा जाहिए ताकि फिर दरारें खो जाएं धरती का कंट फिर भीगे धरती के प्रान तरप्तों तरसा मेटे और धरती धन्यवाद में आकास को हजारों हजारों ब्रक्षों के फूल बेट करें
01:22:14भक्ती वर्सा है अद्वेट उत्तप्त सूरी है पर अपनी अपनी मौच अद्वेट से भी कोई पहुँचना चाहे तो पहुँच जाता है
01:22:36लेकिन तब बड़ा ध्यान रखना जरूरी है कि कहीं ये तर्गजाल एहंकार को मजबूत न करे
01:22:42भक्ती सुगम है और भक्ती में बटकना कम संभव है क्योंकि भक्ती की पहली ही सर्थ है एहंकार को छोड़ना
01:22:55भक्ती का सारा जोर उस पर है अद्वेट कहता है अहम ब्रहम हास्मी मैं ब्रहम हूँ ठीक है बिलकुल बात अगर जोर ब्रहम हो तो ठीक है कहीं जोर मैं पर हुआ तो बिलकुल गलत है
01:23:17कौन तै करेगा किस पर जोर है अहम ब्रहम हास्मी मैं ब्रहम हूँ जब मैं यह कहूँ कि मैं ब्रहम हूँ तो तुम कैसे तै करोगे कि मेरा जोर कहा है मैं पर है या ब्रहम पर अगर ब्रहम पर हुआ तो सब ठीक अगर मैं पर हुआ तो सब गलत वाक्य वही लेकिन भक्ती म
01:23:47उसके पर्म प्रेम में डूप जाना बक्ती है उसके
01:23:52आज ही तुना है

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