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धर्मं बाहरी क्रियाओं पर निर्भर नहीं है | हमारी भीतर की भावना ही धर्म को परिभाषित करती है | हम किसी के साथ चिड़ कर बात करे वह अधर्म का प्रकार है| गलतियों का पश्चाताप करना और मोक्ष के ध्येय से जो भी किया जाए वह धर्मं कहलाता है |